बड़े अरमान से बीजा था
मेहनत से उसे पोसा
भरे थे रंग
लम्हा-लम्हा कर के
एक-इक रग
चुन के बांधी थी
कि हम दो पत्तियों को
मिल के
इक-दो और
बुननी थीं
नयी इक नींव
रखनी थी
नये वासिक शजर की
हाँ
वो इक पौधा था
इक छोटू से पौधे से
मेरे होने का
रिश्ता था
फ़कत रिश्ता
नहीं था जो
मिरे होने का
बाइस था
नज़र किसकी लगी
के रंग बिखरे
हाथ छूटे
हाफ़िज़ा-ए-लम्स भी
बिसरा
किसी इल्ली के
खाये पत्तों सा
उधड़ा
पड़ा है आज
कैसे
रग-ब-रग
खुलकर!
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