दुष्यन्त कुमार को जितनी बार पढ़ा जाए, कुछ नया ही भावार्थ निकलता है.
सो अन्तरताने पे टहलते हुए एक ग़ज़ल दिखी और लगा कि हर शेर एक तस्वीर है.
इसलिए, इस फरवरी हम इस ग़ज़ल के एक-एक शेर को एक-एक तस्वीर के साथ पढ़ेंगे
और सोचेंगे और देखेंगे और गुनगुनाएंगे.
परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं
तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं
मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं
कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
सियासत के कई चोले हुए हैं
चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं
No comments:
Post a Comment