Thursday, June 18, 2009

कुत्ते

बकलम फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि
बख्शा गया जिनको ज़ौक--गदाई
ज़माने
की फ़िटकार सरमाया उनका
जहाँ
भर कि दुत्कार इन की कमाई ना आराम शब को, ना राहत सवेरे
गलाज़त
में घर, नालियों में बसेरे
जो
बिगड़ें तो इक-दूसरे से लड़ा दो
ज़रा
एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये
हर एक की ठोकरें खाने वाले

ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख्लूक गर सर उठायें
तो
इन्सान सब सरकशी भूल जायें
ये
चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये
आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई
इनको एहसास--ज़िल्लत दिला दे
कोई
इनकी सोई हुई दुम हिला दे।

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