Wednesday, January 4, 2012

धूप का बस एक टुकड़ा

तुम्हें जाड़ा सताता है?
तुम्हें गर्मी से शिकवा है?
तबीयत 
कोई भी मौसम हो 
कुछ नासाज़ रहती है? 
बड़े नाज़ों की पाली हो 
बहुत नाज़ुक कहानी हो?
अरे छोड़ो! 
उन्हें देखो 
जो पत्तों की 
बना कर छत 
गुज़र करते हैं 
ज़ीस्त अपनी  
अलाव भर की लकड़ी क्या 
जिन्हें चूल्हा भी मंहगा है 
रजाई क्या 
जो बिन कपड़े के 
आधी सिन बिताते हैं 
ज़रा निकलो तो अपनी 
गुनगुनाई से 
इधर देखो 
उठा फेंको 
नफ़ासत के 
ये झूठे खोल 
और सोचो 
कि जब इन्सानियत आधी 
ठिठुरती है अंधेरों में 
अकड़ कर भूख से 
मरती है  
सहराओं में 
शहरों के
तो तुम अपने बदन से 
एक कपड़ा 
दे नहीं सकते? 
तुम अपनी धूप का 
बस एक टुकड़ा 
बाँट कर देखो 
तुम्हारा एक टुकड़ा कम 
तुम्हें इन्साँ बना देगा।  

3 comments:

Icarus said...

well written!

CYNOSURE said...

brilliant...

Sid said...

Icarus - Thanks. Where's ur blog??

CY|\|O$|_|RE - Thanks :)