Saturday, August 18, 2012

जीवेम शरद: शतम्

कुछ इस तरह ख्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!
ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी

ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी

खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!

इतने लोगों में कह दो आँखों को

इतना ऊँचा न ऐसे बोला करें

सब मेरा नाम जान जाते हैं ।

 लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा

दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?

शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर

किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को

तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?

 ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गये है

फिर भी आंखों में चेहरा तुम्हारा समाये हुये है.

किताबों पे धूल जमने से कहानी कहां बदलती है.

तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे

हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!

 बे-लगाम उड़ती हैं कुछ ख्वाहिशें ऐसे दिल में

‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।

थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्वाहिशें मुझ से।

 तेरे गेसु जब भी बातें करते हैं,

उलझी उलझी सी वो बातें होती हैं.

मेरी उँगलियों की मेहमानगी, उन्हें पसंद नहीं.

नाप के वक्‍त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको
उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?

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